कोई जरुरी नहीं

कोई जरुरी नहीं
शब्द वही कहें
जो तुम कहना चाहते हो !

वे वही कहते हैं
जो उनके हृदय में होता है
शब्दों के हृदय को पढ़ना और समझना
बेहद जरुरी है ।

तुम यह न समझो
कि शब्द केवल तुम्हारे हथियार हैं
या कि तुम इन्हें उनके खिलाफ खड़े कर सकते हो
जो निहत्थे और कमज़ोर हैं
वस्तुतः ये तो ऐसे मजबूत संसाधन हैं जो
किसी भी सत्ता के खिलाफ
जरुरत के मुताबिक
खड़े  हो जाते हैं
और केवल ऐसा भी नहीं है
गोया स्वयं जिसने सृजित किया है
उनके विरुद्द भी वे खड़े हो जाते हैं
वे निष्पक्ष हो कर
परिणाम लिख देते हैं
और तुम्हारी किसी चाल से
मिटाए नहीं मिट सकता उनका कोई
प्रयुक्त या अप्रयुक्त अर्थ
फिर क्यों नाहक
शब्दों को बेवजह छेड़ते हो
और सोंचते हो
जो बोलोगे
संसद में या उससे बाहर
उसका वही अर्थ होगा
जो तुम चाहते हो ।

शब्द
वर्फ में भी आग लगा देते हैं
अपनी ध्वनियों से कन्दराओं को बजा देते हैं

वे पहाड़ों और भारी चट्टानों को
बिना किसी अन्य ताकत के
चकना-चूर कर देते हैं
उनके आगे
ईश्वर भी मंत्रवत हैं

सुनो
शब्द जंगल की तस्वीर हैं
वे कादो-माटी की तकदीर हैं
उनके आगे सत्ता झुक जाती है
वे इंसान की भूख और पेट की आग
दोनों को शामिल कर
नई दुनियां रचने में जहां-तहां
मशगूल हैं
अतः शब्दों से तुम बतियाओ
उनसे हिलो-मिलो
उनके दुःख और दर्द को समझो
वे तुम्हें अपने अर्थ का सही पता दे देंगे
पर यह कोई जरुरी नहीं 
कि जो तुम कहो 
वही वे करें ।  

शब्द
हथियार हैं जरुर
पर उनके लिए
जो उसका इस्तेमाल
हथियार की तरह करते हैं
किन्तु
ग़र तुमने उन्हें
गलत तरह से इस्तेमाल किया तो
वे हथियार भर नहीं रह जाते
वे सम्पूर्ण सृष्टि को नष्ट करने की ताकत रखते हैं
बहुत ही कम लोग समझ पाते हैं कि
वे ईश्वर के विरुद्ध खड़े हो जाने वाले ईश्वर हैं
भगवान् के विरुद्ध भगवान्

राम के विरुद्ध धोबी के दो बोल
और दशरथ के विरुद्ध भवितव्य भी वही हैं
कैकेई की भाषा की वे ही ध्वनियां हैं भाई
ज़रा सोच-समझ के शब्दों का इस्तेमाल करना
क्योंकि कोई जरुरी नहीं कि तुम जो कहना चाहो
वही ये कहें
और फिर चुप रहें
न कहने पर भी यदि तुमने

जाने-अनजाने गलत इस्तेमाल कर दिया उनका
वे बह्माण्ड को बदल सकते हैं
इसलिए
एक बात कह रहा हूँ यहां
जरा ढ़ंग से समझ लेना
शब्द तभी इस्तेमाल करना
ग़र उनसे तुम परिचित हो अन्यथा
अपरिचित से परिचय करना पहिले
तभी दोस्ती बढ़ाना
धोखा न होगा
वर्ना ये शब्द ही हैं
जो महाभारत कराते हैं
और स्वयं कृष्ण कहे जाते हैं
कृष्ण को पढ़ना और समझना जरुरी है
तभी तुम कुछ कह सकोगे
अन्यथा बेहतर है चुप रहना
कम से कम गलत बोलना तो ना होगा ।






सुपर स्टार स्वर्गीय राजेश खन्ना जी के निधन के बाद उनके जीवन में आई महिलाओं को ले कर मीडिया में अनेक तरह की बातें आ रही हैं । पता नहीं कब तक यह सब चलेगा ।  मुझे यह कहते हुए हिचक नहीं हो रहा है कि ये सब सवाल उनके जीवन काल में क्यों नहीं उठाए जाते थे ? क्या होता है कि आदमी जब चला जाता है तो पीछे से पूरी दुनियां किस्से  कहानियां क्यों सुनाने लगती है ?


उदय कुमार सिंह
21 जुलाई, 2012
            माँ

माँ
तब मेरा जनम भी न हुआ होगा,
था,
कि तुम्हारी शादी में
देख सका होऊंगा...
तुम्हारी रंग-रंगाई मांग को
और कह सका होऊंगा .....
कि माँ -
तुम बहुत अच्छी लग रही हो  मुझे !

माँ !
आज मैंने अपने अभिन्न मित्र सुलभ से पूछा है
कि दोस्त मेरी माँ हंसती नहीं है कभी भी !
कि क्या हो गई है बात भाई !!
कि क्या बात है भाई !!!

माँ
वह कह रहा था, कि
देख भाई
समाज उसे विधवा कहता है
जिसकी माँग में सिंदूर नहीं होता
उसे सधवा कहता है जिसकी माँग में सिंदूर लगा होता है
और उसे क्वांरी कहता है जिसकी माँग में सिंदूर नहीं लगा होता  !

मां
तब मैं तुरत लौट आया था अपने दोस्त के पास से
और आते ही तुमसे पूछा था, कि
माँ ! ओ माँ !!
तुम सधवा हो, या कि
तुम विधवा हो, या कि
तुम क्वांरी हो माँ !!!
बताओ ना मुझे -
तुम्हारी माँग में होली के लाल अबीर सी
वह ललाई क्यूं नहीं दिखती माँ !
माँ, बताओ ना कि
तुम्हारी माँग उजली क्यूं है ?
और जभी तेरे हाथ
मेरी कनपट्टियों पर पड़े थे  -
जोर से…..
ज्यों लम्बे अर्से से मारा नहीं था तुमने -
और रो पड़ी थीं फूट-फूट कर
पर क्षण में खींच भी लिया था तुमने
मुझे
अपनी गोद में
और खींच कर
और दोनों हाथों से पकड़ कर
चूम-चूम
सिसक सिसक 
यह कहा था -
कि देख बेटे
तुमने सवाल किया है
मेरी माँग को उजली देख कर
तो सुन,
एक दिन दिखाऊंगी
तेरी शादी में
तेरी इन ऊंगलियों को
अपनी बहू की माँग तक ले जा कर -
और बताऊंगी तुम्हें तब
कि ऐसी ही माँग थी मेरी....
कि देख -
ऐसी ही माँग थी मेरी
और वही
तेरे सवाल का उत्तर होगा बेटे !
वही ........ तेरे सवाल का......... उत्तर होगा ...... बेटे..
वही तेरे सवाल का उत्तर...........!



रचयिता :
उदय कुमार सिंह
सीबीडी, बेलापुर, नवी मुम्बई ।


माँ मेरी जिंदगी की वह हक़ीकत हैं जिन्होंने मुझे इस मुकाम तक पहुंचने के रास्ते बताए हैं – चाहे वह मेरे साथ रहीं हों या ना भी रही हों । उन्होंने मुझे प्यार कम पर दुत्तकार बहुत दिए हैं । उनकी नसीहतों ने मेरे हृदय में असीम प्रेम का ज़ज़्बा भरा है और मुझे कविता के नज़दीक तक पहुँचने का मार्ग प्रशस्त किया है । मैं उनका ऋणी हूँ कि उनके तिरस्कारों ने मुझे आदमी बने रहने की तमीज़ सिखाई है और उनके प्रति सदा अपने स्व को विलीन कर संयत बने रहने का पाठ पढ़ाया है । मैं सदैव उनके ममत्व के लिए लालायित रहा हूँ और यह इसलिए हुआ है कि मुझे उनसे बेईन्तहां प्रेम है चाहे उन्होंने मुझे मारा–पीटा हो या छिछन – बिछन कर गरियाया हो, या जैसा वह चाहीं - वैसा मैं, बन ना सका ! पर जो कुछ बना, और जिस रुप में हूँ जिन्दा, वह,  उन्हीं का दाय है । माँ, मेरी जिंदगी का सपना रही हैं और उस सपने को मैंने अपने अन्तर-मन में सदैव संजो कर रखा है । मेरी कविताओं में कहीं-न-कहीं ही वह हर बार नज़र आएंगी क्योंकि माँ से बड़ी दुनियां में मेरे लिए कोई प्यारी  मूरत नहीं – शायद ईश्वर भी नहीं । मेरे दावे को कोई झुठलाना चाहे तो ऐसा वह नहीं कर सकता क्योंकि उनके बिना मेरी इयत्ता कुछ हो ही नहीं सकती ।

कोई हकीकत तलाशने चले तो उसे शायद मेरी भाषा में विरोधाभास नज़र आए । पर इतना अवश्य कहूंगा कि यदि विरोधाभास भी नज़र आए तो उसे कबूल कर लेना क्योंकि वही तो मुक्त होने का मार्ग भी बनता है । माँ के प्रेम के लिए कौन संतान लालायित नहीं रहता !  भले वह उतना मिले या ना मिले – जितने की उसे चाहत हो । पर मैं उतना भी पा कर खुश हूँ जितना भर वह मुझे दे सकीं क्योंकि जो ना मिला उसके लिए मैं सदैव तत्पर तो बना रहा और वह मेरे सांसों का अंग रहीं कि वह अब प्यार करेंगी और तब प्यार करेंगी । आप कह सकते हैं – यह मोह है पर मैं, उसे मोह से मुक्ति की ओर प्रस्थान मानूंगा, और वह तभी संभव है, जब आप उसके प्रति अनासक्त रह कर उसकी अभिलाषा करें । मेरी भाषा की जीवंतता का वह एक सम्यक कारण हैं, और इसलिए मैं, उनका सदैव ऋणी हूं । माँ – आपके ममत्व के लिए मेरी यह कविता आपको सम्पूर्ण सम्मान के साथ समर्पित है ।   

आपका बेटा – उदय कुमार सिंह,
पता: 8 सी 2, गेलआशियाना, सीबीडी बेलापुर,
नवी मुम्बई – 400614.


यह कविता माँ”, मेरी संवेदना की वह पहली पौध है जिसे मैंने अपने बचपन में तब अपनी सांसों पर रोप लिया था जब मेरी धड़कनों की गति का मुझे कुछ भी अता-पता नहीं था और तब मैं एक कच्ची उम्र में था । पता नहीं किस ज़मीन पर यह पौध रुप गई औचक - शायद वह बेहद ही नाज़ुक ज़मीन रही होगी -  जहां कादो-माटी के सिवा मेरा अपना कोई नहीं था, सिवा मेरी इन संवेदनाओं के, जो मेरी कविता में माँकी शक्ल में रुपाकृत हो गई और जिसने मेरी ज़िदगी को, लू भरे दौर से निकाल कर, अनजाने उन रास्तों पर ला छोड़ा जिस पर मैं निकल तो गया अपने घर के सारे मोह और बंधनों को छोड़ कर, किन्तु, फिर अपने घर आज तक लौट ना सका और माँ का वह प्यार भी ना मिला जिसे मैं चाहता रहा ता जिंदगी पाना, और शायद मेरे भाग्य में वह बदा नहीं पाना - ठीक वैसे ही जैसे पिता का बचपन में ही साथ छूट जाना और उनके प्यार से बंचित हो जाना ।  फिर माँ से भी उनका वह प्यार, आज भी और अब तक उनके जीवित रहने पर ना मिलना ! जिसकी जरुरत एक बच्चे को सदैव होती है - चाहे वह अपनी माँ के सामने वृद्ध ही क्यों न हो जाए और इस एक कमी का अहसास तो सदैव बना रहा है मेरे साथ -  मेरे बचपन से आज तक - मैं इसे अस्वीकार नहीं सकता पर यही मेरी रिक्ति मेरी कविता की ताकत भी बनी है । यह एक वज़ह है जो मेरी कविता में एक मक़सद के रुप में अन्तरायित है । बात-चीत के लहज़े में वह कविता में नज़र आ ही जाएगी - कहीं-न-कहीं । बचपन से ही, ऐसे ही सोच से जूझता, कुछ-कुछ, यदा-कदा, लिखता रहा और उस शुरुआत की, यह प्रस्थानिका, मेरी बेतरतीब जिंदगी, एक भाषा पाती गई और उसने, मेरी आवाज को, जीवन के सारे दर्द को, रात के सन्नाटों में न जाने किन कांटों के सहारे बुनकर, मेरी उस दौर की मूक ध्वनियों को "माँ" की कविता में ढाल गई । वह सातवें दशक में मेरे जीवन के ऊथल-पुथल भरे जीवन की प्रारम्भिका रही हैं । यह कविता मेरी बेहद प्रिय कविता है जिसे मैं मौत के दस्तक तक नहीं भूल सकतामाँ मेरी अभी जीवित हैं पर मेरा उनसे कहने भर के संबंधों का ही संबंध रह गया है । वह मेरे पास नहीं रहतीं, मुझसे कभी प्यार से आज भी बातें नहीं करतीं, और ना जाने क्यों जब मैं उनसे मिलने की ललक से उनके पास जाता हूँ अपने गृह नगर तो थोड़े ही दिनों में मैं व्यथित मन से अपनी नौकरी करने के शहर में वापस लौट आता हूँ । वैचारिक स्तर पर हम कभी भी एक नहीं हो सके । ना कभी वह मुझे समझ सकीं और ना ही मैं उन्हें समझ सका । यहां मैं हार गया पर फिर भी मेरे अन्तर्मन में उनके लिए अथाह प्रेम है । मैं सदैव चाहता रहा कि वह खुश रहें किन्तु मैं उन्हें खुश रख नहीं सका ! यह एक अजीबोगरीब संत्रास है - मेरी जिंदगी का, और इसे मैं ता जिंदगी झेलता रहा ।  जाने क्यों ऐसा लगता है कि सब कुछ पा जाने के बाद भी मैं अतृप्त ही रहा ! शायद रिक्त रहा ! यह रिक्तता ही जिंदगी के भराव का मानक है - संभव है । इसलिए उनका उपकृत तो रहना ही होगा न मुझे ! 

मैं इसलिए भी उनका ऋणी हूं कि उन्होंने मुझे अपने जीवन में सांसारिक मोह से विरक्त रहने का कारण इस तरह से मुझे अपने से दूर कर के बताया । पर मेरी सांसों में उनकी इयत्ता तो मौजूद है और शायद इसलिए मैं उनसे तिरस्कृत हो हो कर भी जीवित बचा रह रहा हूँ । अतः मैं उनका जन्म- जन्मान्तर ऋणि रहूँगा - वह मानें या ना मानें  ।  
-    उदय कुमार सिंह । 29.11.2011, नवी मुम्बई ।
21.01.2009 रात्रि : 13.30 बजे


प्रेमः ऐसे एक शब्द के सिवा कुछ भी नहीं चाहिए

वे नहीं जानते
या भूल गए हैं कि
भाषा के बीज
कहीं भी जनम सकते हैं
कहीं भी पनक सकते हैं
इस जमीन पर
या कि आकाश में .....
या कि पूरे ब्रहमाण्ड में
आसमान की क्या हद
वह तो स्वयं आस मान है ।

शायद छोटा है इसके लिए ।

इसलिए
जहां उसका जनम हुआ होगा
वह धरती कहलाई होगी
और आकाश या कि आसमान या कि
समुद्र या कि पूरी प्रकृति
निहारती भर रह गई होगी उसे विमुग्ध !
तब क्या ईश्वर ने
पैदा किए होंगे कुछ शब्द -

नहीं !

इसी धरती ने
धारण किया होगा
उर्जा की अजस्त्र धाराओं को
बूँद बूँद
अपनी कोख में
और वही बूँद
वीर्य कहलाया होगा
और ध्वनि का वही वही प्रस्फुटन
प्रकट हुआ होगा
प्रेम के संगोपन में
जिसे कहा ईश्वर ने -
मैंने स्वयं को सृजित किया -
कि मैं ही
वह ध्वनि हूँ
कि वह विरवा
कि पुकारो मुझे किसी भी शब्द से
किसी भी ध्वनि से
और हम लड़ रहे हैं
कि यह मेरी भाषा
कि वह तेरी भाषा
कि यह मेरा देश कि वह तेरा देश
कि यह मेरी धरती कि यह मेरा वेश
और इस तरह हमने अपने ही शब्द
अपने ही अर्थ
अपने खिलाफ खड़े कर लिए
और वे खड़े हैं लाम बंद हो
और हमें ही कत्ल कर रहे
दिन-रात
पल-क्षिण
और हम चिल्ला भी रहे
वह पाकिस्तान
वह हिन्दुस्तान
वह अमरीका
वह चीन
वह हमास
वाह क्या क्या नहीं हो रहा धमास !


पता नहीं
उस ध्वनि का प्रथम स्फोट
कब और कहाँ हुआ होगा
कौन बताएगा
धरती ने कब कोख में उसे धारण किया
कब उसे जाया
नहीं ज्ञात वह तारीख
समय या घड़ी
पर यह तय है कि
इन परिकल्पनाओं के समीप ही कहीं
किसी मुकाम पर
कि पहाड़ों या कन्दराओं में या कि  
समतल पर या कहीं और -
जहाँ प्रकृति ने किया होगा
किन्हीं संगोपनों में स्वयं को अभिव्यक्त.....
जनम गयी होगी
शब्द की हस्ती.....
पर कहाँ !


कहाँ कहाँ..... की
वे पहली ध्वन्याकमताएँ
जहां निकली होंगी
या कि उसके इर्द-गिर्द....
या कि आदम और हौआ की पहली सीत्कार....
या कि हहराते समुद्र
की टूटन
या फटती ज्वालामुखियों का क्रन्दन
या कि
जब किया होगा कलरव पंछियों ने.....


तय है  
ध्वनि की उस पहली ईकाई
ने जब लिया होगा जन्म
एक अप्रतिम रुप
लावण्य मुस्काया होगा
ईश्वर पहली बार अवतरित हुआ होगा
धरती पहली बार शर्माई होगी
वह पहली शाम
उद्दाम लहर ठहर गई होगी
और पूरी रात
और पूरी कायनात
स्तब्ध और निशब्द रही होगी
देख रही होगी
वह कसमसाहट
जन्मने की पीड़ा
की साक्षी उस रात के
गर्भ से निकल कर
कैसे आया होगा
एक नवारुण पृथ्वी पर
धपाक से
देखी होगी प्रकृति ने
वीर्य प्रस्फुटन के उस नव निनाद को
ईश्वर का
मौन पहली बार हुआ होगा मुखर ।

*                     

शब्द का जनम
दिन
पंचांग बन गया होगा

शब्द पनक गया ऐसे ही इस दुनियां में
वहां....
जहां से ऊपर....
किसी अनजानी धरती पर
वह पहली बार पनका
जहाँ
वह धरती बेहद नरम
और ऊर्वरा होगी ।

हां वह शब्द
किसी कारखाने
का उत्पाद नहीं है
बल्कि उन कारखानों की नींव में
श्रम और स्वेद की बूंदे हैं
कुर्सियों की बाहों
या मेज़ पर बिकती फाईलों में लिखे
हरफ !
जब बोलते हैं -
तब भी कोई भाषा जनमती है ।

भाषा
जंगल में जनम सकती है
वह होटलों में व्यभिचार के बीच
एक नई दुनियाँ में
एक नई दुनियाँ
रच सकती है
पर वह किसी किरोड़ीमल की तिजोरी में कैद
हो नहीं सकती
क्योंकि उसकी जड़ें
धरती की माटी में गड़ी होती हैं
वहां, वह हर संगोपन
एक ही ध्वनि में ऊजागर कर देती है ।



कोई विरवा
जब बियराड़ से छिटक कर
आरी पर गिर जाता है
वह चिरईचुरुंग के पेट में जनमने लगता है
एक चिड़िया तब गुनगुना रही होती है ।


जब कोई चिड़िया
किसी मकान की दीवार पर
बैठ कर बिष्टा कर देती है
वहां भी एक अनपचा विरवा
एक पीपल का पेड़ रोप जाता है
जिसको डर से कोई काटता भी नहीं ।
वह मकान और पंछी की कहानी सुना रहा होता है ।
इलसलिए काटना मत किसी शब्द को,
वह कटा कि
फटा ।


इसलिए
किसी भी भाषा से
उसके शब्दों से
खिलवाड़ न करो
वे खिलवाड़ में भी
न जाने कब और कैसे
पूरी सत्ता को ही बदल देते हैं ।

वह
ऑस्कर का पुरस्कार ला सकते हैं
पर संभव है तुम्हारे ही मुँह पर
तमाचा भी ज़ड़ दें
इसलिए उनका इस्तेमाल ऐसा न करो
कि तुम्हें सफाई पर सफाई देनी पड़े ।

देखो
शब्द मयखाने में पैदा होते हैं
मधुशाला में पैदा होते हैं
मस्ती में पैदा होते हैं
शब्द आग हैं भाई
आग से न खेलो
यह खेल खेल में आग लगा देते हैं
महल को राख में तबदील कर देते हैं
सधवा को विधवा बना देते हैं
और बाहुबलि को
महाभारत में धकेल देते हैं ।
   
वह
आदमी की नस्ल और वस्ल
दोनों की शक्ल बदल देते हैं ।

शब्द
गोली बारुद आदि से भी
अधिक मारक होता हैं भाई !
न जाने कब अस्त्र शस्त्र बन जाए
और घर और बाहर दोनों का एक बार में ही  
ऩक्शा ही बदल दे ।

वह
कब चौसर पर बिछी बाजी में
अपने हीं भाँजे, बहु और भाईयों की
खुशहाल जिन्दगी को
महाभारत में बदल दें
नहीं मालूम ।

शब्द
जो पक जातें हैं
धनकती धूप में
उनकी आंखों में मत झांको
न जाने कब उसमें लाली बरने लगे ।

वे अंधेरों में
आदमी के हाथों में आ कर
खौलने लगते हैं
तुम उसे क्रान्ति कहो
लाल झण्डा
या पुकारो उसे
किसी नए नाम से
बिन लादीन
या आतंक
या जेहाद
बुश या प्रजातंत्र पर हमला
उसका अभिप्राय एक ही है
जीने का हक छीनना
जो गवारा नहीं है उसे ।

यही तो वह ताकत है
जिसने
दुनिया के
बेहद कमजोर आदमी गांधी को
दुनियाँ का सबसे मजबूत आदमी बना दिया
इतिहास न तो उसे सिवा
अपने पन्नों में कैद कर सका
ना ही दुनियाँ का सबसे बड़ा साम्राज्यवाद
उसे हरा सका
निहत्था था
पर कितना ताकतवर !
शब्द
भाषा के
मौन के अव्यक्त से
प्रस्फुटित हो
मुखर ध्वन्यात्मकता से
निःसृत हो
न जाने कितने
रौरव और हरकारों से निकल कर
बहती नदियों, समुद्र और पहाड़ों और
उनकी कन्दराओं, गुफाओं और घाटियों, पगडंडियों आदि को
पार कर
समतल में चहूँ ओर
अपनी जरुरत और सत्ता के अनुकूल
बनाते गए
घर और बस्तियां
उनके कुल और वंश पनपते रहे
बसता गया परिवार-दर-परिवार
और आज हम
सोचते हैं
हम किस परिवार के हैं ।

क्या हमारी भाषा अपनी है या पराई !
यों जैसे
एक बार में सारी धरती पर
हम
कई सुरों में बजना चाहते हैं
पर एक दूसरे को
अपना नहीं मानते ?

शब्द सब
ध्वन्यायित हो
अभिव्यक्ति के संसाधन बने
एक एक कर
सब की सत्ता कायम हुई
हमने अपने अनुकूल
उनमें से कुछ को चुना
और बतियाने लगे
उनके सहारे
एक-दूसरे से
और जब-जब बतियाते
पाया कि
जब भी किसी संकल्पना को
नई रुपाकृति में ढ़ालने की चाहत हुई
अभिव्यक्ति तलाशने लगी
एक नया पर अपना सा शब्द
नए रुप के लिए
नई शैली के लिए
और जो भी आया
नजदीक मिला
भले ही हम उसे कहें
परदेशी
उससे
उसका अपनापे वाला
शब्द ले लिया ।
शब्द
सबद हो गया
और गांधी
अहिंसक !

शब्द
मेरी भाषा में
आज के अख़बार में
रोज पढ़ाता है वही एक शब्द
और हम बार-बार उसे भूल जाते हैं
स्मरण नहीं कर पाते
क्योंकि उसे अपनी सत्ता पर नाज़ है
और शब्द को वह अपने मसरफ़ से इस्तेमाल करना चाहता है

मेरी भाषा
एक नया शब्द
उस दिन से
जब लाठी
चार्ज हो गया
और डंडा महिलाओं के जिस्म को
उघाड़ कर
घिनौनी हरकते करने लगा
और लाठी का नाम डंडा पड़ गया
और वह
शांति के विरुद्ध
चार्ज़ हो गया
लाठी की शक्ल बदल गई 
और भाषा में लाठी डंडा बन बरस गई ।

शहर परेशान होता है जब
हर नया शब्द
उसे, नई दवा ला कर
दे देता है
रोग से मुक्त होने के लिए।

भाई लड़ना ही है
तो लड़ो उससे
जो शब्दों की उर्जा को तोड़ना चाहते हैं
नष्ट उन्हें करो जो
शब्दों को समझना नहीं चाहते
बे-वज़ह अपनी ही किसी भाषा को न गरियाओ
अपना मुँह खराब करने से
क्या फायदा ?
खुद का ज़ायका बिगड़ता है !
भाई
अपने ही भाई से
रह-रह क्यों लड़ते हो
अपनी बहनों से लड़ना क्या
क्या जीतना है वह !
दोनों के जिस्म
और जहांन में
एक ही शब्द
लाल लाल
प्रवाहित होता है
दिल पर कान रखो
और सुनो तो ज़रा
कि अपने प्रवाह में
वह कह क्या रहा !
न जाने क्यों ऐसा लगता है
हम अपनी ही भाषा का प्रयोग
अपने खिलाफ कर रहे हैं
और मशगूल हैं
कि कोई आए मेरे दरवाज़े
और कहे-
वाह ! क्या दमदार शब्द का इस्तेमाल किया है ?
आज तक यह विवाद हो रहा
कि इस लकीर के पार जो शब्द है
वह तेरा है
और इस पार वाला मेरा है
या कि एक दिमागी भ्रम
कि मेरा तेरे में है
और तेरा मेरे में घुसा है !
पर किसी को पता नहीं
किसका किसमें कितना है !

आग जब लगती है
शब्द जब जलते हैं
उसके भड़क कर दूर के घर तक
लहाफ मार जला देने का भय
पूरी आबादी को डरा देता है
और दुःस्वप्न साकार हो जाता है कई बार ।

इसलिए ज़रुरी है कि
अब भी समझो कि
शब्द
एक
आग है
और
आग की
एक ही भाषा होती है
बरना लहकना और बुझ जाना
वह
जब
सब कुछ को
आगोश में ले लेती है
तब
शांति
स्वतः आती है
पर
तब वह शांति भी पीड़दायक होती है
इसलिए
प्यार करो
शब्द से
हर शब्द से
अपने या उनके या कि पूरी दुनियां के शब्दों से
प्रेम
ढ़ाई आखर ही सही
पर
सबसे अधिक मुखर
सबसे अधिक प्यारा है
एक
शब्द ।

आओ, इधर सरक कर
बैठो पास पास
और इबादत करें
हर शब्द के जनमदिन पर
उसके बड़े होने और दुनिय़ां में बढ़ने पर
कि आओ और स्वीकार करें
शब्द को कोई हथियार मार नहीं सकता
कसाब की क्या बिसात गिलानी
बिन लादिन की सत्ता तो बिल्कुल बेमानी !
दुनिया गवाह है
कोई भी
कितना भी ताकतवर क्यों न हुआ
भारत की धरती पर
वह हार कर ही
गया
और जब भी गया
यहां के शब्द  
उसके जीवन का
औलिया बन गए
और ऐसे ही कई इबादतगाहें बन गईं
और आज भी वह
समझ नहीं पा रहे कि
क्या ले जाएं यहां से और क्या पाएं
पर
दोस्त
एक नसीहत दे रहा  हूँ तुम्हें यहाँ -
मेरी कविता में
वह
शब्द
कभी भी मरता नहीं
वह सर्वदा अजेय है
और इसलिए यहां हर जाति और धर्म आदि
गेय है ।

इसलिए
चाहो तो इतना करो
शब्द की छांव में आ जाओ
नफ़रत को प्रेम का शब्द सुनाओ
मन के धागे में ऐसी मनका लगाओ
कि दुनियाँ के हर कोने में तुम्हारी फिरनी फिरे
और एक साथ
प्रेम की तरंग में
ऐसे एक शब्द के सिवा
मुझे या तुम्हें कुछ भी अधिक नहीं दिखे
या मिले ।



रचयिता :

उदय कुमार सिंह
गेल कॉलनी, मगदल्ला ।

कोई जरुरी नहीं कोई जरुरी नहीं शब्द वही कहें जो तुम कहना चाहते हो ! वे वही कहते हैं जो उनके हृदय में होता है शब्दों के हृदय को पढ़न...